मैं शीर्षक किसी और की कहानी का...

मुझे पता है, एक दिन सब मेरा किया हुआ भूल जाएंगे, वो सारे समझौते जो मैंने मेरी जिंदगी के साथ किए, सिर्फ इसलिए की मैं दूसरों की उम्मीदों पर खरा उतर जाऊं । औरों को कोई दिक्कत, कोई तकलीफ़, कोई कमी ना होने दूं । कोई आपसे सिर्फ इसलिए प्यार करता है क्यूंकि आप कहीं ना कहीं उसकी उम्मीदों पर खरे उतर रहें हैं या उसकी जरूरतें पूरी कर रहें हैं, और ये बात कभी कभी सामने वाले को भी पता नहीं होती ।
और मैं, मैं किसी के लिए कुछ भी इसलिए नहीं कर रहा हूं की वो मुझे उस काम के लिए ज्यादा मान सम्मान दें, या मेरी पूजा करें । मैं दूसरों की मदद सिर्फ इसलिए करता हूं क्यूंकि मैंने वो दिन वो समय देखा है जब आपको लोगों की जरूरत हो और आपके साथ कोई खड़ा ना हो, सिर्फ आप, खुद को खुद में लिए उस समय से लड़े जा रहे हैं, क्यूंकि आपको पता है की अगर आप कमज़ोर पड़े तो मामला साफ़ हो जाएगा, आप बहुत पीछे रह जाएंगे और ज़िन्दगी आपको धक्के के सिवा और कुछ नहीं देगी ।
मुझे डर है की किसी और के साथ ऐसा कुछ ना हो, मैं उसे पहले ही बचा लूं, मैंने जो देखा है, जो सहा है, और उन सब चीज़ों से लड़ भी चुका हूं और जीत भी चुका हूं, पर क्या और कोई भी ऐसा होगा जो ऐसी दृढ़ विश्वास रखता हो खुद पर ? अगर नहीं रखता तो ज़िन्दगी उसके साथ क्या सुलूक करेगी, कहीं वो टूट के बिखर तो नहीं जाएगा, कहीं वो हर सामने वाली चीज़ से नफ़रत तो नहीं करने लगेगा ? मैं उसको ये सब ज़िन्दगी पलट देने वाली चुनौतियों से बचा लेना चाहता हूं ।
पर अगर मैंने उसको सारी चुनौतियों से बचा कर सीधे जीत की राह दिखला दी तो क्या वो मेरे संघर्ष को समझेगा ? शायद नहीं, क्यूंकि उसको पता ही नहीं की किन कांटों से गुज़र कर उसको कांधे पर बिठा कर लाया हूं मैं । पर इसका निष्कर्ष क्या है ? मैं किसके लिए सोच रहा हूं, उस इंसान के लिए जो कभी मेरे संघर्ष, मेरी पीड़ाओं को समझ नहीं पाया ? या मेरे लिए, की मैं दुनिया को दिखा देना चाहता हूं की तुम जिस कहानी के नायक बने घूम रहे हो उसका शीर्षक मैं हूं ?

~सजल सूरज

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